हम भी अगर बच्चे होते!

                  हम भी अगर बच्चे होते!

बहुत लंबा सफर था| सोलह घंटे का तो तयशुदा था जो अब बढ़ता ही जा रहा था| उत्तर भारत की भीषण गर्मी तो आप जानते ही होंगे| एक बार लू लग जाए, तो ‘’लू’’ जा जाकर ही जाती है| यात्रा का पहला चरण तो ट्रेन में कट रहा था लेकिन आगे की ढाई सौ (250) किमी की बस यात्रा अभी चिंता का विषय बनी हुई थी| गनीमत थी कि ट्रेन में वातानुकूलित श्रेणी में बर्थ आरक्षित थी| और आश्चर्य इस बात का था कि निचली बर्थ पर रात के सफ़र में कोई बुजुर्ग अदला-बदली करने भी नहीं पहुंचे| पसरे हुए रात गुज़ार दी| दिन चढ़ आया था| इस लम्बे सफर में एक बार तो कम्पार्टमेंट के सभी सहयात्री हमको अकेला छोड़ चुके थे| आखिर ‘लेट’ ट्रेन में लेट कर कोई कितना सफ़र करे? रेल की लंबी खिंचती कहानी में कोई दिलचस्प किरदार न हो तो यात्रा बहुत उबाऊ हो जाती है| न दिलचस्प सही लेकिन, थोड़ी थोड़ी देर पे बदलते ही रहें तो उनके बर्ताव को देखते – समझते समय बीत जाता है| उम्मीद की किरण अगले स्टेशन पर दिखाई दी जब एक परिवार ने हमारे साथ पारी संभाली| एक दंपति और उनके दो बच्चों – एक छोटी बेटी और एक बहुत छोटा बेटा, जो अभी सिर्फ इशारों में बात करता था – ने मेरे सामने की बर्थ पर तशरीफ रखी|

पता नहीं क्यों, लेकिन भारतीय रेल में यात्रा करना बच्चों के लिए कोई मनोकामना पूर्ण होने जैसा होता है| जहां बुजुर्ग ट्रेन के हिचकोलों से कमर-दर्द बढ़ने के कारण ट्रेन को कोसते नहीं थकते, वहीं बच्चों के लिए छुक छुक गाड़ी की यह अदा, किसी नृत्य के समान है और इंजन की सीटी तो उनके लिए कोई विजय घोष| कोई ताज्जुब नहीं कि ट्रेन में चढ़ते समय जब माँ – बाप सामान चढ़ाने, बच्चों की सकुशलता, कुली (नई शब्दावली में सहायक) महोदय के साथ लेन-देन और पसीने से जूझ रहे होते हैं, वहीं बच्चे अतुल्य भारत के इस पैगम्बर के प्लेटफॉर्म पर पहुँचते ही अति-रोमांचित हो जाते हैं| और अगर बच्चे एक से ज़्यादा हों तो छिड़ती है जंग, ऊपरी बर्थ के लिए| लेकिन उस दिन ऐसा नहीं था| ऊपरी बर्थ के लिए बहन एकमात्र दावेदार थी| किसी गिलहरी की भांति वो झटपट ऊपर चढ़ गई| उनके बारे में मैं नहीं जानता जिन्होंने उड़नखटोले से नीचे कभी यात्रा ही नहीं की लेकिन, एक आम-भारतीय बच्चे के दिल में भारतीय रेल अवश्यमेव ऐसे भाव उत्पन्न करती है|

अब जब ट्रेन पर सवार हो गए तो पब्लिक का अगला ‘स्टेप’ होता है – घर से साथ लाए भोजन पर टूट पड़ना| एक तरह से समझदारी भी है| अगर पहले रेल का दिया बिस्तर बिछा लिया तो उसपर दाग पड़ सकते हैं| और जो बिस्तर धुलते हैं भी कि नहीं, (मुद्दा संसद में विवादित है), उनपर दाग पड़ना अच्छे नहीं हैं| और अगर खाना खाते समय टी.टी.ई. महोदय पधार जाएँ तो तेल से सने हाथ तो अपने टिकट या पहचान पत्र पर ही लगेंगे न| शायद इसलिए कई टी.टी.ई. एक रुमाल साथ रखते हैं|

तो हमारे मिस्टर एंड मिसेज एक्स ने भी ऐसा ही किया| देखते-देखते डिब्बे के सभी यात्रियों की घ्राणेंद्रिय ने सूचित कर दिया कि कोई खाना खा रहा है| यह देखकर खुशी हुई कि भोजन करके उन्होंने डिस्पोसेबल प्लेट, चम्मच आदि का कर्कटार्पण ट्रेन के कूड़ा-दान को किया, न कि चलती ट्रेन से बाहर धरती माँ को।

खाना खाकर मिस्टर एंड मिसेज एक्स ने राहत की सांस अंदर खींची ही थी कि छोटे मियां को जाने क्या खटक गया और लगे राग-रूदाली अलापने| छोटे बच्चे जब ट्रेन में रोना शुरू करते हैं तो माँ – बाप के चेहरे देखने वाले होते हैं| बालक की रुदन-ध्वनि से जनित सहयात्रियों की प्रतिक्रियाएँ, माँ – बाप की यात्रा और भी असहज बना देती हैं| जिसकी नींद टूटती है उसका चिड़चिड़ाया हुआ “अमा यार!” बोलना, वहीं किसी सीनियर वालिदैन की व्यंगपूर्ण मुद्रा बिना कुछ बोले ही उनको ‘एम्बरेस कर देती है| इस सबके बीच कई बार माँ-बाप बिलकुल किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं| उस दंपति का सौभाग्य कि ऐसा कोई सहयात्री नहीं था|

हर तरह के चेहरे बनाने, हर तरह से पुचकारने और रिझाने के बाद जब मिस्टर एंड मिसेज एक्स ने हार मान ली तो लगे ऊपर वाले को याद करने| दुआ ज़रूर सच्ची रही होगी, क्योंकि तुरंत ही ऊपर ‘वाली’ की ‘आकाशवाणी’ हुई| छोटे मियां, जो धुआंधार “अश्रुपात कर रहे थे, ने अपनी खोपड़ी ऊपर घुमाई और एकाएक खिलखिलाने लगे| आवाज़ पार्वती जी की नहीं बल्कि बड़ी बहन की थी| उन्होंने ऐसा चमत्कार दिखाया जो छोटे मियां ने कभी देखा नहीं था| वो था, रेल के सीलिंग फैन में उंगली डालकर उसके पंख को घुमाना| इस विलक्षण दृश्य ने छोटे मियां का मन जीत लिया और वो अपनी काईं – कूँ वाली भाषा में “वन्स मोर” कहने लगे| माँ-बाप ने भी ऐसी उत्साहित प्रतिक्रिया दी जैसे वो भी पहली बार पंखे का पंख घूमते देख रहे हों| फिर क्या था, बहन एक बार उंगली मारती और आवाज़ देती| भाई ऊपर देखता, हँसता और ताली बजाता|

करीब पंद्रह मिनट तक यह क्रिया – प्रतिक्रिया चली होगी| उसके बाद देवी बार-बार आवाज़ देती रही लेकिन छोटे मियां ने एक बार भी ऊपर नहीं देखा| अब वो माँ – बाप की ओर विचलित स्वर से इशारा कर रहे थे| और इससे पहले कि  वह स्वर मुखर हो, दोनों उद्विग्नता से वैकल्पिक आकर्षण ढूंढने लगे। उस हँसते, खेलते परिवार के साथ बची हुई रेल यात्रा का पता ही नहीं चला।

अब बारी थी बस यात्रा की। ट्रेन से उतर कर हम जल्दी से बस पर सवार हो गए। बस में एक बेसिरपैर की फिल्म चला रखी थी लेकिन हमारे दिमाग में तो ट्रेन की घटना रीप्ले हो रही थी| का खूब मौका मिला। अन्तर्रालाप का संयोग अकसर यात्रा करते वक्त ही मिलता है। हमारा मानना है कि भीड़ की तन्हाई में खुद से बतियाने का मज़ा ही कुछ और है।

मानव मति की तीन अवस्थाएं मेरे सामने थीं। उनमें से कौन सी अनुसरणीय है इस पर मैं विचार करने लगा। समझदारी की सबसे निचली पायदान पर मौजूद छोटे मियाँ मुझे बहुत जंचे|

सारा समय मैं उनके खेल को देख कर मंद मंद मुस्कराते हुए सोच रहा था कि, छोटी छोटी बातों में खुशियां ढूँढना या तो बच्चों या फिर फकीरों को ही आता है| हम बड़े क्या हो जाते हैं, हमको अक्ल आ जाती है| कहने को तो हम समझदार हो जाते हैं लेकिन इतनी भी समझ नहीं रह जाती कि खुद को खुश कैसे रखें| हमको खुश रहने के लिए भी डॉक्टर से प्रिस्क्रिप्शन लेने पड़ते हैं| अगर हम ता-उम्र बच्चे बने रहें तो कितना अच्छा हो|

लेकिन प्रकृति का नियम तो कुछ और ही है। वो नियम है – हमको समझदार बनाने का| दूसरे शब्दों में, हमारे ना-खुश न सही तो कम-खुश होने, का। फिर एक घमंडी मानव की ही भाँति मैंने प्रकृति के नियम की सार्थकता पर ही सवाल लगा दिया। कोई नियम गलत भी तो हो सकता है, फिर चाहे प्रकृति का बनाया ही क्यों न हो? लगभग निष्कर्ष पर भी पहुँच चुका था कि एक और ख्याल आया।

छोटे मियाँ खुश तो बड़ी जल्दी हो जाते थे लेकिन उससे भी जल्दी उसी खुशी से ऊब भी जाते थे। कितनी देर में, 15 मिनट? जितनी देर वो जागृत रहते हैं, उतनी देर उनका ध्यान खींचे रहने में ही निकल जाता है| हम कितने ही बड़े हो जाएँ, हमारे अंदर का वो ऊब जाने वाला बालक सदा मौजूद रहता है। फर्क सिर्फ ऊब जाने की अवधि में पड़ता है।

प्रकृति शायद हमको सिखाना चाहती है कि हम चिर-स्थायी खुशी हासिल करें। इसके लिए बार बार हमको मौके देती है, जिनको हम उतार-चढ़ाव या सुख-दुःख की आवृत्ति बोलते हैं| लेकिन हम मूल तक नहीं पहुँच पाते। वहां पहुँचता है वो फ़कीर, जिसको मैंने नज़रअंदाज़ कर दिया और जो उसी ट्रेन से उतर कर कहीं चला गया|

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  •  अश्रु

 

 

2 Comments

  1. अमां यार। गजब ढा गए है मियां।
    पहले पढ़ी सभी प्रसंगों में इसकी श्रेणी प्रथम। हल्का सा वाकया जो शायद सभी के जीवन को शुशोभित करता है परंतु हम वाकई बड़े हो गए है। इस प्रसंग को दो अथवा तीन हिस्सों में सुसज्जित कर सकते है।
    थोडा सा और रोमांच बढ़ा कर।
    ध्यान न दे :बे सर पैर की सिनेमा का भी अपना ही मजा है।

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